Monday, 20 October 2014
Saturday, 3 May 2014
दोपहरी
गरमी की दोपहरी में
तपे हुए नभ के नीचे
काली सड़कें तारकोल की
अंगारे-सी जली पड़ी थीं
छांह जली थी पेड़ों की भी
पत्ते झुलस गए थे
नंगे-नंगे दीघर्काय, कंकालों से वृक्ष खड़े थे
हों अकाल के ज्यों अवतार
एक अकेला तांगा था दूरी पर
कोचवान की काली सी चाबूक के बल पर
वह बढ़ता था
घूम-घूम ज्यों बलखाती थी सर्प सरीखी
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गरम
पीठ पर।
भाग रहा वह तारकोल की जली
अंगीठी के उपर से।
कभी एक ग्रामीण धरे कंधे पर लाठी
सुख-दुख की मोटी सी गठरी
लिए पीठ पर
भारी जूते फटे हुए
जिन में से थी झांक रही गांव की आत्मा
जि़ंदा रहने के कठिन जतन में
पांव बढ़ाए आगे जाता।
घर की खपरैलों के नीचे
चिडि़यां भी दो-चार चोंच खोल
उड़ती छिपती थीं
खुले हुए आंगन में फैली
कड़ी धूप से।
बड़े घरों के श्वान पालतू
बाथरूम में पानी की हल्की ठंड़क में
नयन मूंद कर लेट गए थे।
कोई बाहर नहीं निकलता
सांझ समय तक
थप्पड़ खाने गर्म् हवा के
संध्या की भी चहल-पहल ओढ़े थी
गहरे सूने रंग की चादर
गरमी के मौसम में।
तपे हुए नभ के नीचे
काली सड़कें तारकोल की
अंगारे-सी जली पड़ी थीं
छांह जली थी पेड़ों की भी
पत्ते झुलस गए थे
नंगे-नंगे दीघर्काय, कंकालों से वृक्ष खड़े थे
हों अकाल के ज्यों अवतार
एक अकेला तांगा था दूरी पर
कोचवान की काली सी चाबूक के बल पर
वह बढ़ता था
घूम-घूम ज्यों बलखाती थी सर्प सरीखी
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गरम
पीठ पर।
भाग रहा वह तारकोल की जली
अंगीठी के उपर से।
कभी एक ग्रामीण धरे कंधे पर लाठी
सुख-दुख की मोटी सी गठरी
लिए पीठ पर
भारी जूते फटे हुए
जिन में से थी झांक रही गांव की आत्मा
जि़ंदा रहने के कठिन जतन में
पांव बढ़ाए आगे जाता।
घर की खपरैलों के नीचे
चिडि़यां भी दो-चार चोंच खोल
उड़ती छिपती थीं
खुले हुए आंगन में फैली
कड़ी धूप से।
बड़े घरों के श्वान पालतू
बाथरूम में पानी की हल्की ठंड़क में
नयन मूंद कर लेट गए थे।
कोई बाहर नहीं निकलता
सांझ समय तक
थप्पड़ खाने गर्म् हवा के
संध्या की भी चहल-पहल ओढ़े थी
गहरे सूने रंग की चादर
गरमी के मौसम में।
गरमी में प्रात:काल
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
जब मन में लाखों बार गया-
आया सुख सपनों का मेला,
जब मैंने घोर प्रतीक्षा के
युग का पल-पल जल-जल झेला,
मिलने के उन दो यामों ने
दिखलाई अपनी परछाईं,
वह दिन ही था बस दिन मुझको
वह बेला थी मुझको बेला;
उड़ती छाया सी वे घड़ियाँ
बीतीं कब की लेकिन तब से,
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
तुमने जिन सुमनों से उस दिन
केशों का रूप सजाया था,
उनका सौरभ तुमसे पहले
मुझसे मिलने को आया था,
बह गंध गई गठबंध करा
तुमसे, उन चंचल घड़ियों से,
उस सुख से जो उस दिन मेरे
प्राणों के बीच समाया था;
वह गंध उठा जब करती है
दिल बैठ न जाने जाता क्यों;
गरमी में प्रात:काल पवन,
प्रिय, ठंडी आहें भरता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
चितवन जिस ओर गई उसने
मृदों फूलों की वर्षा कर दी,
मादक मुसकानों ने मेरी
गोदी पंखुरियों से भर दी
हाथों में हाथ लिए, आए
अंजली में पुष्पों से गुच्छे,
जब तुमने मेरी अधरों पर
अधरों की कोमलता धर दी,
कुसुमायुध का शर ही मानो
मेरे अंतर में पैठ गया!
गरमी में प्रात:काल पवन
कलियों को चूम सिहरता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
जब मन में लाखों बार गया-
आया सुख सपनों का मेला,
जब मैंने घोर प्रतीक्षा के
युग का पल-पल जल-जल झेला,
मिलने के उन दो यामों ने
दिखलाई अपनी परछाईं,
वह दिन ही था बस दिन मुझको
वह बेला थी मुझको बेला;
उड़ती छाया सी वे घड़ियाँ
बीतीं कब की लेकिन तब से,
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
तुमने जिन सुमनों से उस दिन
केशों का रूप सजाया था,
उनका सौरभ तुमसे पहले
मुझसे मिलने को आया था,
बह गंध गई गठबंध करा
तुमसे, उन चंचल घड़ियों से,
उस सुख से जो उस दिन मेरे
प्राणों के बीच समाया था;
वह गंध उठा जब करती है
दिल बैठ न जाने जाता क्यों;
गरमी में प्रात:काल पवन,
प्रिय, ठंडी आहें भरता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
चितवन जिस ओर गई उसने
मृदों फूलों की वर्षा कर दी,
मादक मुसकानों ने मेरी
गोदी पंखुरियों से भर दी
हाथों में हाथ लिए, आए
अंजली में पुष्पों से गुच्छे,
जब तुमने मेरी अधरों पर
अधरों की कोमलता धर दी,
कुसुमायुध का शर ही मानो
मेरे अंतर में पैठ गया!
गरमी में प्रात:काल पवन
कलियों को चूम सिहरता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
Thursday, 13 March 2014
फागुन गाए गीत
फागुन गाए गीत
रोम-रोम पुलकित हुआ, अँखिया ढूँढे मीत
ऋतु बसंत के साथ जब फागुन गाए गीत
मौसम की अंगड़ाई ने, किए नए संकेत
बासंती आहट पाकर, पीले हो गए खेत फागुन उत्सव प्रेम का, तज कर मान-गुमान
निकला है बाजार में, लिए अधर मुस्कान
हरे गुलाबी रंगों ने किया बासंती रंग
देख दबदबा फागुन का दुनिया रह गई दंग
फागुन पुरवाई चली, बहकी हर इक चाल
महुआ संग पलाश ने ठोकी मादक ताल
झूम-झूम इठला रहे रंग-गुलाल-अबीर
फागुन छेड़ी तान तो गाए गीत समीर
गाँव-शहर की हर गली, मिलकर गाए फाग
चौराहे-चौपाल पर गूँजे नित नए राग
बोझिल जीवन में जगी, इक सुंदर-सी आस
फागुन आ बिखरा गया, आँगन नए पलाश।
मौसम की अंगड़ाई ने, किए नए संकेत
बासंती आहट पाकर, पीले हो गए खेत फागुन उत्सव प्रेम का, तज कर मान-गुमान
निकला है बाजार में, लिए अधर मुस्कान
हरे गुलाबी रंगों ने किया बासंती रंग
देख दबदबा फागुन का दुनिया रह गई दंग
फागुन पुरवाई चली, बहकी हर इक चाल
महुआ संग पलाश ने ठोकी मादक ताल
झूम-झूम इठला रहे रंग-गुलाल-अबीर
फागुन छेड़ी तान तो गाए गीत समीर
गाँव-शहर की हर गली, मिलकर गाए फाग
चौराहे-चौपाल पर गूँजे नित नए राग
बोझिल जीवन में जगी, इक सुंदर-सी आस
फागुन आ बिखरा गया, आँगन नए पलाश।
Monday, 17 February 2014
नव उमंग नव बसंत!
नव उमंग नव आनंद
नव रंग नव सुगन्ध
आया फिर बसंत
नव रंग नव सुगन्ध
आया फिर बसंत
नव चाह नव राह
नव आस नव साँस
लाया फिर बसंत
नव आस नव साँस
लाया फिर बसंत
नव गुंजार नव झंकार
नव वंदन नव गान
गाया फिर बसंत
नव वंदन नव गान
गाया फिर बसंत
नव वसुधा नव आकाश
नव प्रभात नव प्रकाश
जगमगाया फिर बसंत
नव प्रभात नव प्रकाश
जगमगाया फिर बसंत
नव तुंग नव कुमकुम
नव जूही नव गुलाब
खिलाया फिर बसंत
नव जूही नव गुलाब
खिलाया फिर बसंत
नव कांक्षा नव रोमांच
नव संकार नव संकल्प
जगाया फिर बसंत नव
नव संकार नव संकल्प
जगाया फिर बसंत नव
निमंत्रण नव आह्वान
नव प्रसंग नव शृंगार
मुस्कुराया फिर बसंत
नव प्रसंग नव शृंगार
मुस्कुराया फिर बसंत
नव छंद नव प्रसंग
नव अंदाज़ नव उल्लास
मनाया फिर बसंत
नव अंदाज़ नव उल्लास
मनाया फिर बसंत
असंग बसंत मंगल बसंत
कंचन बसंत चंचल बसंत
निष्पंक बसंत बसंती बसंत
आया! आया! फिर बसंत!
कंचन बसंत चंचल बसंत
निष्पंक बसंत बसंती बसंत
आया! आया! फिर बसंत!
Sunday, 16 February 2014
नीली धारियों वाला स्वेटर
कैसी भी रही हो ठण्ड
ठिठुरा देने वाली या गुलाबी
एक ही स्वेटर था मेरे पास
नीली धारियों वाला
बहिन के स्वेटर बुनने से पहले
किसी की उतरी हुई जाकेट
पहनता था मैं
जाकेट में गर्माहट थी
पर जाकेट पहन कर
ख़ुशी नहीं मिलती थी मुझे
एक उदासी छा जाती थी
मेरे चेहरे पर
बहिन मेरे चेहरे पर छाई
उदासी पढ़ कर
खुद भी उदास हो जाया करती थी
बहिन ने थोड़े-थोड़े पैसे बचा कर
ख़रीदे सफ़ेद नीले ऊन के गोले
एक सहेली से मांग लाई सलाई
किसी पत्रिका के बुनाई विशेषांक से
सीखी बुनाई
दो उल्टे एक सीधा
एक उल्टा दो सीधे डाले फंदे
कई दिनों तक नापती रही
मेरा गला और लम्बाई
गिनती रही फंदे
बदलती रही सलाई
ठिठुराती ठण्ड आने से पहले
एक दिन बहिन ने
पहना दिया मुझे नया स्वेटर
बहिन की ऊंगलियों की ऊष्मा
समां गई थी स्वेटर में
मेरे चेहरे पर आई चमक
देख कर खुश थी बहिन
मेरा स्वेटर देख कर
लड़कियाँ पूछती थी
कलात्मक बुनाई के बारे में
बहिन के ससुराल जाने बाद भी
कई वर्षों तक पहनता रहा मैं
नीली धारिओं वाला स्वेटर
उस स्वेटर जैसी ऊष्मा
फिर किसी स्वेटर में नहीं मिली
उस स्वेटर की स्मृति में
आज भी ठण्ड नहीं लगती!
ठिठुरा देने वाली या गुलाबी
एक ही स्वेटर था मेरे पास
नीली धारियों वाला
बहिन के स्वेटर बुनने से पहले
किसी की उतरी हुई जाकेट
पहनता था मैं
जाकेट में गर्माहट थी
पर जाकेट पहन कर
ख़ुशी नहीं मिलती थी मुझे
एक उदासी छा जाती थी
मेरे चेहरे पर
बहिन मेरे चेहरे पर छाई
उदासी पढ़ कर
खुद भी उदास हो जाया करती थी
बहिन ने थोड़े-थोड़े पैसे बचा कर
ख़रीदे सफ़ेद नीले ऊन के गोले
एक सहेली से मांग लाई सलाई
किसी पत्रिका के बुनाई विशेषांक से
सीखी बुनाई
दो उल्टे एक सीधा
एक उल्टा दो सीधे डाले फंदे
कई दिनों तक नापती रही
मेरा गला और लम्बाई
गिनती रही फंदे
बदलती रही सलाई
ठिठुराती ठण्ड आने से पहले
एक दिन बहिन ने
पहना दिया मुझे नया स्वेटर
बहिन की ऊंगलियों की ऊष्मा
समां गई थी स्वेटर में
मेरे चेहरे पर आई चमक
देख कर खुश थी बहिन
मेरा स्वेटर देख कर
लड़कियाँ पूछती थी
कलात्मक बुनाई के बारे में
बहिन के ससुराल जाने बाद भी
कई वर्षों तक पहनता रहा मैं
नीली धारिओं वाला स्वेटर
उस स्वेटर जैसी ऊष्मा
फिर किसी स्वेटर में नहीं मिली
उस स्वेटर की स्मृति में
आज भी ठण्ड नहीं लगती!
Friday, 14 February 2014
बारिश और गुलाबी ठंड
बाहर झमाझम बारिश है
फरवरी की गुलाबी ठंड में
मौसम की यह इनायत बेहद मुलायम
पत्तियाँ धुली हुईं
दिन भर की धूप की थकान से
अभी अभी गर्भ से बाहर आए
मेमनों की आँखों-सी
मिट्टी की सोंधी महक
तुम्हारी साँसों-सी मादक हो रही
भीतर खूब भींगने की इच्छा चढ़ती रात-सी
जवाँ हो रही इस ढलती शाम में
कल फूलों में उतरेगी
अलग ही रंगत, अलग ही खुशबू
अलग ही ताज़गी में नहायी
खिलखिलाएँगी कलियाँ
उदासी की चादर ओढ़े सोच रहा हूँ
तुम कैसे सोच रही हो इस बारिश के बारे में
या कि एकबारगी भींगने उतर पड़ी हो
बारिश में
बाहर बरसती इस बारिश में
भीतर खूब भींगना, खूब रोना चाहता हूँ
मैं भी!
फरवरी की गुलाबी ठंड में
मौसम की यह इनायत बेहद मुलायम
पत्तियाँ धुली हुईं
दिन भर की धूप की थकान से
अभी अभी गर्भ से बाहर आए
मेमनों की आँखों-सी
मिट्टी की सोंधी महक
तुम्हारी साँसों-सी मादक हो रही
भीतर खूब भींगने की इच्छा चढ़ती रात-सी
जवाँ हो रही इस ढलती शाम में
कल फूलों में उतरेगी
अलग ही रंगत, अलग ही खुशबू
अलग ही ताज़गी में नहायी
खिलखिलाएँगी कलियाँ
उदासी की चादर ओढ़े सोच रहा हूँ
तुम कैसे सोच रही हो इस बारिश के बारे में
या कि एकबारगी भींगने उतर पड़ी हो
बारिश में
बाहर बरसती इस बारिश में
भीतर खूब भींगना, खूब रोना चाहता हूँ
मैं भी!
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