Friday, 2 January 2015

दरख़्त बनती लड़की !

 {प्रेम मुक्त करता है तो लड़के पंछी बन उड़ने लगते हैं और लड़कियां दरख़्त बन जाती हैं ,लेकिन क्या पंछी दरख्त के बसेरे में लौट पाते हैं ? }


 उसने कभी संगतराश होना नहीं चाहा। उसे याद है एक दिन उड़ते हुए पंछी को देखकर उसने कहा था अब्बा मैं यूँ जिंदगी भर पत्थरों पर छेनियां नहीं चलाऊंगा… मैं आसमान में उड़ना सीखूंगा .... पंछी बनूँगा .... अब्बा ने बिना उसकी तरफ देखे अधूरे बुत को तराशते हुए कहा,संगतराश का बेटा पंछी नहीं बना करता …उसकी उड़ाने तो छेनी और हथौड़े की चोटें तय किया करती है  उसका आसमान होता है ये संगमरमर और रंगीन पत्थरों का जखीरा.....


अब्बा की ऐसी गहरी बातों को सुनने का वो आदी था, जिसके माने उसे कभी समझ नहीं आते थे। वो उनके बुदबुदाते ओठों को देखता तो लगता वो जैसे वे किसी दूसरी ही दुनिया से बाते कर रहे हो। वो दूसरी ही दुनिया थी जो बेजुबान बुतों की थी 

बाद में उसने सनोबर से पूंछा था तो अपनी सुंदर आँखों पर उसने घनी पलकों का नरम छप्पर ढांप लिया.... "ऊंह.… मैं क्या जानूँ भला !… लेकिन अगर संगतराश का बेटा पंछी नहीं बन सकता तो फिर किसी पंछी का बेटा भी संगतराश नहीं बन पता होगा है न ?"

एक वक्फे के बाद वो मुस्करा दिया ! "वाकई संगतराश का बेटा पंछी नहीं बना करता। उसे खुद याद नहीं कब अपने पर तलाशते-तलाशते  वो अपना आसमान तराशने लगा। जैसे बरसात के बाद कल्लर जमीन पर घास और मुफीद बूटियां खुद ही उग आती हैं वैसेही अब्बा के हुनर की तमाम बारीकियां भी अपने आप ही उसके हाथो में खेलने लगीं।"

जिंदगी का पहला लम्हा था जब उसने खुद को अचरज से देखा । संगमरमर का एक टुकड़ा जो हु-ब-हु उस के सपने से मेल खाता था ,उसने अब्बा के औजारों से छिप कर उसे एक खूबसूरत पंछी में बदल दिया । नीचे लिखा "सपना जो बूत बन गया... " उसे लगा उसने अक्रिमिडीज जैसी कोई बड़ी भरी खोज की हो ।

 अब्बा ने चौंक कर देखा ... "अं... देखो अभी इसके पैरों पर कुछ और बारीक़ चोटों की जरुरत है । चोच की नोक भी जरा भोंथरी जान पड़ती है। …। जरा मेहनत करो ,बेहतर होगा की सपनो के बुत गढ़ने के बजाय बुतो को अपनों की तरह गढ़ना सीख लो ।"


 उसे चिढ हुयी। अब्बा कभी सीधी बातें भी तो कर सकते हैं जो उसकी समझ में आ जाया करें। … अलबत्ता  सनोबर उस पंछी को देखकर बहुत खुश हुयी थी । उसे कहती रही , "ऐसा ही एक पंछी मेरे लिए भी बना देना । हाय रब्बा …मुझे तो यकीन ही नहीं होता सपने बुत बनकर ऐसे मासूम लगा करते हैं। …


"तब फिर तुमको अपना सपना बताना होगा । ये पंछी तो मेरा सपना है न।"

 सनोबर ने हसरत भरी निगाह से उसे देखा ,"लेकिन मैंने तो कभी कोई सपना ही नहीं देखा... या शायद मुझे सपने देखना नहीं आता । ए ... क्या तुम मेरे लिए एक सपना नहीं देख सकते ?"


 "चलो। …तुम भी क्या याद रखोगी। ...तब तक तुम मेरा सपना ले लो ।"


"ये पंछी !मैं इसे हमेशा अपने पास रखूंगी... तुम कितने अच्छे हो !!"सनोबर बसंत के फूल सी ख़ुशी से महक उठी।

उसे याद आया ,उस रोज ढेरों पंछी आसमान में उड़ रहे थे । सनोबर ने बांहे फैलाकर कहा, "वहाँ देखो तुम्हारे सपने। …"
यकायक हथौड़े की चोट ऊँगली पर पड़ी । खून का एक छोटा सा समंदर ऊँगली पर उग आया। वह दूर- दूर तक आसमान में देखने लगा । वहां नीली चादर पर सिलेटी बादलों के शिवाय कुछ भी न था । सामने जो पेड़ थे वहां भी निरा सन्नाटा था । वो सन्नाटा उसे फिर सपनो और कहकहों के बीच खींच कर ले गया …सनोबर ने ऊँगली अपने मुख पर रख ली । रक्तप्रवाह बंद हो गया 

"तुम्हारे नाम का क्या मतलब है सनोबर ?
""तुम इतना भी नहीं जानते । सनोबर एक मजबूत और शानदार दरख्त हुआ करता है ।"
"तो क्या तुम दरख़्त हो ?"

जवाब में जलतरंग सी एक हंसी फ़ैल गयी , "बुद्धू हो तुम …मैं कोई दरख्त नहीं हूँ ।पर अम्मी कहा करती हैं लड़कियां बड़ी होकर दरख़्त सी हो जाया करती हैं…छाया देने वाली ।" 
 "लड़कियां अगर दरख़्त हो जाती हैंतो लड़के क्या बनते हैं ?"
"लड़के ? अं.… लड़के बन जाते हैं आसमान, पीली धरती… धनक के फूल और हरे दरख्तों के सर पर टिके छिन -छिन रंग बदलते आसमान ।"
"लेकिन मेरे अब्बा तो कहते हैं कि संगतराश का आसमान पत्थरों के जख़ीरों में होता है। … फिर मैं तेरा आसमान कैसे बनूँगा सनोबर ?"  
उसकी बात सुनकर पल भर के लिए उसने अपनी आँखे बंद कर लीं पर आँखे खोलते ही लगा जैसे सूरज की सारी तपिश उसमे उत्तर आई हो । वो सचमुच पतझर में दरख्त सी कांपने लगी ।
"मेरे संगतराश तुम आसमान बनो न बनो मुझे तो दरख़्त बनना ही है ।" 

उड़ती हुयी घुंघराली लटों का गीत हवा में घुल रहा था । उस लड़की के मन के भीतरी तहों का अहसास उसे अंदर तक हिला गया । उसकी बातों ने उसके मन में सूना जंगल बिछा दिया था । पीली धरती ,हवा ,और परिंदो की आवाजें। …सब उसे गहरे पतझर से घिरे महसूस हुए ! एक सर्द हवा का झोंका आया और वो कांप गया !

सनोबर अपनी गली में मुड़ गयी । बड़ी देर तक वो उस तीखे मोड़ को देखता रहा जो उसे आज तक नहीं भूला !

आसमान डूबता सूरज के रंगो में नहा रहा था । और खूबसूरत हरे ग्रेनाइट में धीरे -धीरे एक सपना आकर ले रहा था । कोई इंसानी बुत नही। कोई पंछी नहीं और न कोई नक्काशी का नमूना।..... 
कितनी मुश्किल से मनमाफिक पत्थर मिल पाया था इसके लिए !आखिर वो पहली बार किसी बुत को सपने की तरह गढ़ रहा था । वो इस सपने को वैसा ही मासूम बनाना चाहता था जैसा बचपन का खेल ।

सनोबर घुटनो पर बाहें मोड़े…ठोड़ी टिकाये बैठी थी । " …देखो मेरा घर… मैं बड़ी होकर ठीक ऐसे ही घर में रहूंगी ।" 
"इस घर में ?" वो अचरज से चिल्लाया , "तुमने तो कहा था की तुम बड़ी होकर दरख्त बनोगी …दरख्त घरों में नहीं रहा करते थे पगली ।" उसने ये कहते हुए रेत के घरौंदे को पल भर में बिखेर दिया । सनोबर की आँखों में सैलाब उमड़ आया । वह रुआंसी हो उठी । 
"बहुत बुरे हो तुम ।" 
सफ़ेद कमीज की अस्तीने मोतियों से भीगती रहीं ,"जाओ मैं तुमको कभी माफ़ नहीं करुँगी ।" उसे लगा जैसे कोई बांध टूटकर पूरे वजूद को बहाकर ले जाना चाहता था … सनोबर की उन आँखों को वो कभी नहीं भूल पाया । वे आँखे जिनमे इतने रंग और रंज छिपे थे ।

और एक दिन वो सनोबर जो रेत के घरौंदे में रहने के लिए मोतियों को लुटाया करती थी उस तीखे मोड़ से गुजर कर एक ऐसे आलीशान महल में गुम हो गयी जहाँ चमकते फर्श और रंगीन दीवारों को रेत छू भी न सकती थी । 
सनोबर सचमुच दरख़्त बन गयी । बहुत ऊँचा दरख्त । संगतराश बस एकबार उससे मिलकर जानना चाहता था कि भला कैसे कोई दरख्त उन चमकीले पत्थरों में जिन्दा रह सकता है .... । 

संगतराश ने एक गहरी आह भरी, "यादें !.... मन क्यों इन्हे जब-तब सीलन भरी गलियों से खंगाल लिया करता है । शायद इसलिए की कुछ देर इनकी भीड़ में दिल की तन्हाइयों को गुम किया जा सके… खुद को भुलाया जा सके । लेकिन खुद को भूलने के लिए ये छैनी और हथौड़े की ठक -ठक भी क्या बुरी है ।"
संगतराश ने हसरत से अपनी कारीगरी को परखा । जाने क्यों उसे अपने अब्बा की उन बातों की कमी महसूस हुयी जो उसे कभी समझ न आयी। .... कही छैनी के नाजुक और बारीक़ चोटों की कमी तो नहीं रह गयी वो इस बात की तसल्ली कर लेने चाहता था । काश ! सनोबर ही होती जो एक बार, बस एक बार झूमकर कह देती.... "हाय रब्बा। …मुझे तो यकीन ही नहीं होता सपने बूत बनकर ऐसे मासूम लगा करते हैं ।" 

उसने ऊपर देखा। पंछी और बादल …तिनको की तरह उड़ रहे थे … ये ऊंचाइयां भी वजूद को कैसा बौना बना डालती हैं । वो खुद तो वहीँ रहा …एक मामूली संगतराश।…  दुनिया जिसके हुनर और सनक के किस्से गाया करती थी । अफसोस ,उसके पास कोई मासूम सवाल भी न था जिसे अपने अब्बा जैसी सनक के साथ झिड़ककर वो कह सके… "संगतराश का बेटा पंछी नहीं बना करता ।"
 यकायक उसे ख्याल आया, "गर संगतराश का बेटा पंछी बन ही गया होता तो क्या कभी उसे सनोबर की बाँहों में बसेरा मिल पाता ?"उसने सामने पेड़ो पर उचटती सी नजर डाली। एक ऊँचे पेड़ पर झक सफ़ेद एक पंछी… 

उसने कुछ नरम चोटों के साथ बुत पर थोड़े और गहरे नक्श उभार दिए ।

"वल्लाह बहुत खूबसूरत कारीगरी है । क्या कीमत लीजिएगा इसकी ?"
 संगतराश ने बिना उस ओर देखे कहा ,"भागो यहाँ से.…मुझे उन लोगो से सख्त नफरत है जो सपनों की कीमत लगाते हैं । " 
"सपनो को रेत की तरह बिखेरकर भागने वाले क्या  मुहब्बत के मायने जानते हैं ?" 
आवाज में वही सैलाब था ,वही कशिश और वही नरमी। संगतराश चौंककर मुड़ा । वहां कोई न था । वो तीखा मोड़ एक बार फिर उसकी जिंदगी में आकर गुजर गया । उसके बनाये घरौंदे में एक पंछी रखा था जिसके नीचे लिखा था,  "सपना जो बुत हो गया था ।"
by-अनुपमा श्रीवास्तव

 

Monday, 20 October 2014

शरद ऋतु !

Html Codes
तेरे आते ही गुलों के , रंग सब गहरा गयेभौंरे फूलों से लिपट कर , कान में कुछ गा गये
ओस की बूँदें चमक उट्ठीं , ज़रा सी धूप से
मोतियों के कीमती टुकड़े , धरा पर छा गये
देर से निकला है सूरज , सुबह भी अलसा गयी
लो फिर शरद ऋतु आ गयी !!



Saturday, 3 May 2014

दोपहरी


Html Codes
गरमी की दोपहरी में
तपे हुए नभ के नीचे
काली सड़कें तारकोल की
अंगारे-सी जली पड़ी थीं
छांह जली थी पेड़ों की भी
पत्ते झुलस गए थे
नंगे-नंगे दीघर्काय, कंकालों से वृक्ष खड़े थे
हों अकाल के ज्यों अवतार

एक अकेला तांगा था दूरी पर
कोचवान की काली सी चाबूक के बल पर
वह बढ़ता था
घूम-घूम ज्यों बलखाती थी सर्प सरीखी
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गरम
पीठ पर।
भाग रहा वह तारकोल की जली
अंगीठी के उपर से।

कभी एक ग्रामीण धरे कंधे पर लाठी
सुख-दुख की मोटी सी गठरी
लिए पीठ पर
भारी जूते फटे हुए
जिन में से थी झांक रही गांव की आत्मा
जि़ंदा रहने के कठिन जतन में
पांव बढ़ाए आगे जाता।

घर की खपरैलों के नीचे
चिडि़यां भी दो-चार चोंच खोल
उड़ती छिपती थीं
खुले हुए आंगन में फैली
कड़ी धूप से।

बड़े घरों के श्वान पालतू
बाथरूम में पानी की हल्की ठंड़क में
नयन मूंद कर लेट गए थे।

कोई बाहर नहीं निकलता
सांझ समय तक
थप्पड़ खाने गर्म् हवा के
संध्या की भी चहल-पहल ओढ़े थी
गहरे सूने रंग की चादर
गरमी के मौसम में।

गरमी में प्रात:काल

गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

जब मन में लाखों बार गया-
आया सुख सपनों का मेला,
जब मैंने घोर प्रतीक्षा के
युग का पल-पल जल-जल झेला,
मिलने के उन दो यामों ने
दिखलाई अपनी परछाईं,
वह दिन ही था बस दिन मुझको
वह बेला थी मुझको बेला;
उड़ती छाया सी वे घड़ि‍याँ
बीतीं कब की लेकिन तब से,
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

तुमने जिन सुमनों से उस दिन
केशों का रूप सजाया था,
उनका सौरभ तुमसे पहले
मुझसे मिलने को आया था,
बह गंध गई गठबंध करा
तुमसे, उन चंचल घ‍ड़ि‍यों से,
उस सुख से जो उस दिन मेरे
प्राणों के बीच समाया था;
वह गंध उठा जब करती है
दिल बैठ न जाने जाता क्‍यों;
गरमी में प्रात:काल पवन,
प्रिय, ठंडी आहें भरता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

चितवन जिस ओर गई उसने
मृदों फूलों की वर्षा कर दी,
मादक मुसकानों ने मेरी
गोदी पंखुरियों से भर दी
हाथों में हाथ लिए, आए
अंजली में पुष्‍पों से गुच्‍छे,
जब तुमने मेरी अधरों पर
अधरों की कोमलता धर दी,
कुसुमायुध का शर ही मानो
मेरे अंतर में पैठ गया!
गरमी में प्रात:काल पवन
कलियों को चूम सिहरता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्‍हारी आती है।

Thursday, 13 March 2014

फागुन गाए गीत

फागुन गाए गीत

रोम-रोम पुलकित हुआ, अँखिया ढूँढे मीत 
ऋतु बसंत के साथ जब फागुन गाए गीत 

मौसम की अंगड़ाई ने, किए नए संकेत 
बासंती आहट पाकर, पीले हो गए खेत फागुन उत्सव प्रेम का, तज कर मान-गुमान 
निकला है बाजार में, लिए अधर मुस्कान 

हरे गुलाबी रंगों ने किया बासंती रंग 
देख दबदबा फागुन का दुनिया रह गई दंग 

फागुन पुरवाई चली, बहकी हर इक चाल 
महुआ संग पलाश ने ठोकी मादक ताल 

झूम-झूम इठला रहे रंग-गुलाल-अबीर 
फागुन छेड़ी तान तो गाए गीत समीर 

गाँव-शहर की हर गली, मिलकर गाए फाग 
चौराहे-चौपाल पर गूँजे नित नए राग 

बोझिल जीवन में जगी, इक सुंदर-सी आस 
फागुन आ बिखरा गया, आँगन नए पलाश।




Monday, 17 February 2014

नव उमंग नव बसंत!

नव उमंग नव आनंद
नव रंग नव सुगन्ध
आया फिर बसंत

नव चाह नव राह
नव आस नव साँस
लाया फिर बसंत
नव गुंजार नव झंकार
नव वंदन नव गान
गाया फिर बसंत
नव वसुधा नव आकाश
नव प्रभात नव प्रकाश
जगमगाया फिर बसंत
नव तुंग नव कुमकुम
नव जूही नव गुलाब
खिलाया फिर बसंत
नव कांक्षा नव रोमांच
नव संकार नव संकल्प
जगाया फिर बसंत नव
निमंत्रण नव आह्वान
नव प्रसंग नव शृंगार
मुस्कुराया फिर बसंत
नव छंद नव प्रसंग
नव अंदाज़ नव उल्लास
मनाया फिर बसंत
असंग बसंत मंगल बसंत
कंचन बसंत चंचल बसंत
निष्पंक बसंत बसंती बसंत
आया! आया! फिर बसंत!


Sunday, 16 February 2014

नीली धारियों वाला स्वेटर

कैसी भी रही हो ठण्ड 
ठिठुरा देने वाली या गुलाबी 
एक ही स्वेटर था मेरे पास 
नीली धारियों वाला 

बहिन के स्वेटर बुनने से पहले
किसी की उतरी हुई जाकेट 
पहनता था मैं 
जाकेट में गर्माहट थी 
पर जाकेट पहन कर 
ख़ुशी नहीं मिलती थी मुझे 
एक उदासी छा जाती थी 
मेरे चेहरे पर 

बहिन मेरे चेहरे पर छाई 
उदासी पढ़ कर 
खुद भी उदास हो जाया करती थी 
बहिन ने थोड़े-थोड़े पैसे बचा कर 
ख़रीदे सफ़ेद नीले ऊन के गोले 
एक सहेली से मांग लाई सलाई 

किसी पत्रिका के बुनाई विशेषांक से 
सीखी बुनाई 
दो उल्टे एक सीधा 
एक उल्टा दो सीधे डाले फंदे 

कई दिनों तक नापती रही 
मेरा गला और लम्बाई 
गिनती रही फंदे 
बदलती रही सलाई

ठिठुराती ठण्ड आने से पहले 
एक दिन बहिन ने 
पहना दिया मुझे नया स्वेटर 
बहिन की ऊंगलियों की ऊष्मा 
समां गई थी स्वेटर में 

मेरे चेहरे पर आई चमक 
देख कर खुश थी बहिन 
मेरा स्वेटर देख कर 
लड़कियाँ पूछती थी 
कलात्मक बुनाई के बारे में 

बहिन के ससुराल जाने बाद भी 
कई वर्षों तक पहनता रहा मैं 
नीली धारिओं वाला स्वेटर 

उस स्वेटर जैसी ऊष्मा 
फिर किसी स्वेटर में नहीं मिली 
उस स्वेटर की स्मृति में 
आज भी ठण्ड नहीं लगती!