{प्रेम मुक्त करता है तो लड़के पंछी बन उड़ने लगते हैं और लड़कियां दरख़्त बन जाती हैं ,लेकिन क्या पंछी दरख्त के बसेरे में लौट पाते हैं ? }
उसने कभी संगतराश होना नहीं चाहा। उसे याद है एक दिन उड़ते हुए पंछी को देखकर उसने कहा था अब्बा मैं यूँ जिंदगी भर पत्थरों पर छेनियां नहीं चलाऊंगा… मैं आसमान में उड़ना सीखूंगा .... पंछी बनूँगा .... अब्बा ने बिना उसकी तरफ देखे अधूरे बुत को तराशते हुए कहा,संगतराश का बेटा पंछी नहीं बना करता …उसकी उड़ाने तो छेनी और हथौड़े की चोटें तय किया करती है उसका आसमान होता है ये संगमरमर और रंगीन पत्थरों का जखीरा.....
अब्बा की ऐसी गहरी बातों को सुनने का वो आदी था, जिसके माने उसे कभी समझ नहीं आते थे। वो उनके बुदबुदाते ओठों को देखता तो लगता वो जैसे वे किसी दूसरी ही दुनिया से बाते कर रहे हो। वो दूसरी ही दुनिया थी जो बेजुबान बुतों की थी
बाद में उसने सनोबर से पूंछा था तो अपनी सुंदर आँखों पर उसने घनी पलकों का नरम छप्पर ढांप लिया.... "ऊंह.… मैं क्या जानूँ भला !… लेकिन अगर संगतराश का बेटा पंछी नहीं बन सकता तो फिर किसी पंछी का बेटा भी संगतराश नहीं बन पता होगा है न ?"
एक वक्फे के बाद वो मुस्करा दिया ! "वाकई संगतराश का बेटा पंछी नहीं बना करता। उसे खुद याद नहीं कब अपने पर तलाशते-तलाशते वो अपना आसमान तराशने लगा। जैसे बरसात के बाद कल्लर जमीन पर घास और मुफीद बूटियां खुद ही उग आती हैं वैसेही अब्बा के हुनर की तमाम बारीकियां भी अपने आप ही उसके हाथो में खेलने लगीं।"
जिंदगी का पहला लम्हा था जब उसने खुद को अचरज से देखा । संगमरमर का एक टुकड़ा जो हु-ब-हु उस के सपने से मेल खाता था ,उसने अब्बा के औजारों से छिप कर उसे एक खूबसूरत पंछी में बदल दिया । नीचे लिखा "सपना जो बूत बन गया... " उसे लगा उसने अक्रिमिडीज जैसी कोई बड़ी भरी खोज की हो ।
अब्बा ने चौंक कर देखा ... "अं... देखो अभी इसके पैरों पर कुछ और बारीक़ चोटों की जरुरत है । चोच की नोक भी जरा भोंथरी जान पड़ती है। …। जरा मेहनत करो ,बेहतर होगा की सपनो के बुत गढ़ने के बजाय बुतो को अपनों की तरह गढ़ना सीख लो ।"
उसे चिढ हुयी। अब्बा कभी सीधी बातें भी तो कर सकते हैं जो उसकी समझ में आ जाया करें। … अलबत्ता सनोबर उस पंछी को देखकर बहुत खुश हुयी थी । उसे कहती रही , "ऐसा ही एक पंछी मेरे लिए भी बना देना । हाय रब्बा …मुझे तो यकीन ही नहीं होता सपने बुत बनकर ऐसे मासूम लगा करते हैं। …
"तब फिर तुमको अपना सपना बताना होगा । ये पंछी तो मेरा सपना है न।"
सनोबर ने हसरत भरी निगाह से उसे देखा ,"लेकिन मैंने तो कभी कोई सपना ही नहीं देखा... या शायद मुझे सपने देखना नहीं आता । ए ... क्या तुम मेरे लिए एक सपना नहीं देख सकते ?"
"चलो। …तुम भी क्या याद रखोगी। ...तब तक तुम मेरा सपना ले लो ।"
"ये पंछी !मैं इसे हमेशा अपने पास रखूंगी... तुम कितने अच्छे हो !!"सनोबर बसंत के फूल सी ख़ुशी से महक उठी।
उसे याद आया ,उस रोज ढेरों पंछी आसमान में उड़ रहे थे । सनोबर ने बांहे फैलाकर कहा, "वहाँ देखो तुम्हारे सपने। …"
यकायक हथौड़े की चोट ऊँगली पर पड़ी । खून का एक छोटा सा समंदर ऊँगली पर उग आया। वह दूर- दूर तक आसमान में देखने लगा । वहां नीली चादर पर सिलेटी बादलों के शिवाय कुछ भी न था । सामने जो पेड़ थे वहां भी निरा सन्नाटा था । वो सन्नाटा उसे फिर सपनो और कहकहों के बीच खींच कर ले गया …सनोबर ने ऊँगली अपने मुख पर रख ली । रक्तप्रवाह बंद हो गया
"तुम्हारे नाम का क्या मतलब है सनोबर ?
""तुम इतना भी नहीं जानते । सनोबर एक मजबूत और शानदार दरख्त हुआ करता है ।"
"तो क्या तुम दरख़्त हो ?"
जवाब में जलतरंग सी एक हंसी फ़ैल गयी , "बुद्धू हो तुम …मैं कोई दरख्त नहीं हूँ ।पर अम्मी कहा करती हैं लड़कियां बड़ी होकर दरख़्त सी हो जाया करती हैं…छाया देने वाली ।"
"लड़कियां अगर दरख़्त हो जाती हैंतो लड़के क्या बनते हैं ?"
"लड़के ? अं.… लड़के बन जाते हैं आसमान, पीली धरती… धनक के फूल और हरे दरख्तों के सर पर टिके छिन -छिन रंग बदलते आसमान ।"
"लेकिन मेरे अब्बा तो कहते हैं कि संगतराश का आसमान पत्थरों के जख़ीरों में होता है। … फिर मैं तेरा आसमान कैसे बनूँगा सनोबर ?"
उसकी बात सुनकर पल भर के लिए उसने अपनी आँखे बंद कर लीं पर आँखे खोलते ही लगा जैसे सूरज की सारी तपिश उसमे उत्तर आई हो । वो सचमुच पतझर में दरख्त सी कांपने लगी ।
"मेरे संगतराश तुम आसमान बनो न बनो मुझे तो दरख़्त बनना ही है ।"
उड़ती हुयी घुंघराली लटों का गीत हवा में घुल रहा था । उस लड़की के मन के भीतरी तहों का अहसास उसे अंदर तक हिला गया । उसकी बातों ने उसके मन में सूना जंगल बिछा दिया था । पीली धरती ,हवा ,और परिंदो की आवाजें। …सब उसे गहरे पतझर से घिरे महसूस हुए ! एक सर्द हवा का झोंका आया और वो कांप गया !
सनोबर अपनी गली में मुड़ गयी । बड़ी देर तक वो उस तीखे मोड़ को देखता रहा जो उसे आज तक नहीं भूला !
आसमान डूबता सूरज के रंगो में नहा रहा था । और खूबसूरत हरे ग्रेनाइट में धीरे -धीरे एक सपना आकर ले रहा था । कोई इंसानी बुत नही। कोई पंछी नहीं और न कोई नक्काशी का नमूना।.....
कितनी मुश्किल से मनमाफिक पत्थर मिल पाया था इसके लिए !आखिर वो पहली बार किसी बुत को सपने की तरह गढ़ रहा था । वो इस सपने को वैसा ही मासूम बनाना चाहता था जैसा बचपन का खेल ।
सनोबर घुटनो पर बाहें मोड़े…ठोड़ी टिकाये बैठी थी । " …देखो मेरा घर… मैं बड़ी होकर ठीक ऐसे ही घर में रहूंगी ।"
"इस घर में ?" वो अचरज से चिल्लाया , "तुमने तो कहा था की तुम बड़ी होकर दरख्त बनोगी …दरख्त घरों में नहीं रहा करते थे पगली ।" उसने ये कहते हुए रेत के घरौंदे को पल भर में बिखेर दिया । सनोबर की आँखों में सैलाब उमड़ आया । वह रुआंसी हो उठी ।
"बहुत बुरे हो तुम ।"
सफ़ेद कमीज की अस्तीने मोतियों से भीगती रहीं ,"जाओ मैं तुमको कभी माफ़ नहीं करुँगी ।" उसे लगा जैसे कोई बांध टूटकर पूरे वजूद को बहाकर ले जाना चाहता था … सनोबर की उन आँखों को वो कभी नहीं भूल पाया । वे आँखे जिनमे इतने रंग और रंज छिपे थे ।
और एक दिन वो सनोबर जो रेत के घरौंदे में रहने के लिए मोतियों को लुटाया करती थी उस तीखे मोड़ से गुजर कर एक ऐसे आलीशान महल में गुम हो गयी जहाँ चमकते फर्श और रंगीन दीवारों को रेत छू भी न सकती थी ।
सनोबर सचमुच दरख़्त बन गयी । बहुत ऊँचा दरख्त । संगतराश बस एकबार उससे मिलकर जानना चाहता था कि भला कैसे कोई दरख्त उन चमकीले पत्थरों में जिन्दा रह सकता है .... ।
संगतराश ने एक गहरी आह भरी, "यादें !.... मन क्यों इन्हे जब-तब सीलन भरी गलियों से खंगाल लिया करता है । शायद इसलिए की कुछ देर इनकी भीड़ में दिल की तन्हाइयों को गुम किया जा सके… खुद को भुलाया जा सके । लेकिन खुद को भूलने के लिए ये छैनी और हथौड़े की ठक -ठक भी क्या बुरी है ।"
संगतराश ने हसरत से अपनी कारीगरी को परखा । जाने क्यों उसे अपने अब्बा की उन बातों की कमी महसूस हुयी जो उसे कभी समझ न आयी। .... कही छैनी के नाजुक और बारीक़ चोटों की कमी तो नहीं रह गयी वो इस बात की तसल्ली कर लेने चाहता था । काश ! सनोबर ही होती जो एक बार, बस एक बार झूमकर कह देती.... "हाय रब्बा। …मुझे तो यकीन ही नहीं होता सपने बूत बनकर ऐसे मासूम लगा करते हैं ।"
उसने ऊपर देखा। पंछी और बादल …तिनको की तरह उड़ रहे थे … ये ऊंचाइयां भी वजूद को कैसा बौना बना डालती हैं । वो खुद तो वहीँ रहा …एक मामूली संगतराश।… दुनिया जिसके हुनर और सनक के किस्से गाया करती थी । अफसोस ,उसके पास कोई मासूम सवाल भी न था जिसे अपने अब्बा जैसी सनक के साथ झिड़ककर वो कह सके… "संगतराश का बेटा पंछी नहीं बना करता ।"
यकायक उसे ख्याल आया, "गर संगतराश का बेटा पंछी बन ही गया होता तो क्या कभी उसे सनोबर की बाँहों में बसेरा मिल पाता ?"उसने सामने पेड़ो पर उचटती सी नजर डाली। एक ऊँचे पेड़ पर झक सफ़ेद एक पंछी…
उसने कुछ नरम चोटों के साथ बुत पर थोड़े और गहरे नक्श उभार दिए ।
"वल्लाह बहुत खूबसूरत कारीगरी है । क्या कीमत लीजिएगा इसकी ?"
संगतराश ने बिना उस ओर देखे कहा ,"भागो यहाँ से.…मुझे उन लोगो से सख्त नफरत है जो सपनों की कीमत लगाते हैं । "
"सपनो को रेत की तरह बिखेरकर भागने वाले क्या मुहब्बत के मायने जानते हैं ?"
आवाज में वही सैलाब था ,वही कशिश और वही नरमी। संगतराश चौंककर मुड़ा । वहां कोई न था । वो तीखा मोड़ एक बार फिर उसकी जिंदगी में आकर गुजर गया । उसके बनाये घरौंदे में एक पंछी रखा था जिसके नीचे लिखा था, "सपना जो बुत हो गया था ।"
by-अनुपमा श्रीवास्तव